
साल था 1970, जब राज कपूर ने तय किया कि अब वो सिर्फ दिल ही नहीं, दर्शकों का धैर्य भी टेस्ट करेंगे। “मेरा नाम जोकर” रिलीज़ हुई – एक 4 घंटे लंबी भावनात्मक जर्नी, जिसमें प्रेम, पीड़ा और पब्लिक की प्यास सब कुछ था… बस पॉपकॉर्न जल्दी खत्म हो गया।
जोकर की कहानी या ऑडियंस की अग्निपरीक्षा?
राजू जोकर (राज कपूर) की ज़िंदगी तीन हिस्सों में बंटी है, जैसे हर सरकारी स्कीम – स्टूडेंट फेज, सर्कस फेज और ‘अब बस करो भाई’ फेज।
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टीचर वाला क्रश – सिमी गरेवाल से ऐसा प्यार कि मास्टरजी भी शरमा जाएं।
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सर्कस वाली रूसी मोहब्बत – स्वेतलाना से ऐसा कनेक्शन कि वीज़ा एक्सटेंड न हो तो भी दिल रह जाए।
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तीसरी मोहतरमा – जहाँ राज कपूर कहते हैं, “अब जो होना था, हो गया।”
हर लव स्टोरी अधूरी, और दर्शक की मूवी में डूबने की कोशिश पूरी।
चार घंटे क्यों भाई?
राज कपूर शायद चाहते थे कि ऑडियंस सिनेमा हॉल से नहीं, आश्रम से निकले। इंटरवल के बाद लोग अपनी ज़िंदगी के फैसले बदलने लगे। किसी ने अफेयर तोड़ा, किसी ने लॉन्ग मूवीज़ देखना छोड़ दिया।
सर्कस नहीं, सिनेमा था ये?
हर फ्रेम खूबसूरत, हर डायलॉग भावुक – लेकिन हर 30 मिनट बाद दिल में सवाल उठता:
“राज साहब, इतनी ट्रैजेडी क्यों? थोड़ा हँसी-मजाक भी कर लो!”
लेकिन नहीं। यहाँ जोकर रोता है, और ऑडियंस टिकट के पैसे याद करती है।
सिनेमाई क्रांति या इमोशनल अत्याचार?
“मेरा नाम जोकर” बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह फ्लॉप हुई, लेकिन आज इसे कल्ट क्लासिक कहा जाता है – जैसा कि हर लंबी मूवी के साथ होता है जो समय से पहले बन जाती है।
क्या-क्या याद रहता है?
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ऋषि कपूर का डेब्यू – छोटा जोकर, बड़ी अदायगी
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शंकर-जयकिशन का म्यूज़िक – “जीना यहाँ, मरना यहाँ” आज भी हर emotional status video में मौजूद
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राज कपूर की आंखें – जो कैमरे में नहीं, सीधे दिल में देखती थीं
आखिर में बात सीधी है:
राज कपूर ने कहा था – “जोकर को अपना चेहरा नहीं, सिर्फ मुस्कुराहट दिखानी होती है।”
और ऑडियंस ने धीरे से जोड़ा –…और टाइम देखकर मूवी शुरू करनी होती है।
“मेरा नाम जोकर” एक ऐसा सिनेमाई प्रयोग है, जो दिल तोड़ता है, लेकिन फिल्मी इतिहास बनाता है। अगर आपने आज तक नहीं देखी – तो ज़रूर देखें… लेकिन टिफ़िन पैक कर के।